June 25th, 2014
राजगोपाल सिंह का एक शेर है-
‘‘ख़ुश न हो उपलब्धियों पर, यह भी तो पड़ताल कर,
नाम है, शोहरत भी है पर तू कहाँ बाक़ी रहा।’’
हर क़ीमत पर सफलता और सिर्फ़ सफलता के लिए जीना-मरना जिस दौर की हक़ीक़त हो, उसमें सफलता से दूर अपने होने की यह तलाश ख़ास तौर से महत्वपूर्ण है। ऐसे कम होते हैं, जिनको सफलता मिल जाए। ऐसे और भी कम होते हैं, सफलता जिनके सर चढ़कर न बोले। राजगोपाल मूलत: कवि थे। उनका बुनियादी सरोकार कविता थी, सफलता नहीं। वे जितने ख़ुश एक नया मिसरा हो जाने पर होते थे, उतने कवि सम्मेलन में जम जाने पर संभवत: कभी नहीं हुए। न जमने पर उन्हें बहुत दुखी होते हुए भी मैंने नहीं देखा। सफलता के प्रति यह संतुलित रवैया उनके व्यक्तित्व को इसलिए संपन्न कर सका कि उनका बुनियादी सरोकार सफल होना नहीं था।
राजगोपाल जी से पहली मुलाकात यारों के यार ब्रजमोहन की (कनॉट प्लेस में मद्रास होटल के पीछे स्थित) दुकान पर हुई थी। बहुत से कवि-लेखक वहाँ आया करते थे। एक दिन पहुँचा तो राजगोपाल जी के मधुर स्वर में उनकी ग़ज़ल गूँज रही थी। सुर और शेरियत का वह तालमेल पाकर मैं प्रभावित हुआ। प्रशंसा की। परिचय हुआ। बात आई-गई हो गई। फिर एक कवि-सम्मेलन में मेरी कविताएँ सुनकर बोले- यार! ये तो एकदम अपनी-सी कविताएँ लगती हैं। और फिर मुलाकातों का, बातचीत का सिलसिला चल निकला। अनेक यात्राएँ भी साथ-साथ हुईं। बातचीत में वे अक़्सर अपने नए शेर सुनाते। मेरी प्रतिक्रिया का सम्मान करते।
आधी दुनिया पर उन्होंने पूरे-पूरे दोहे लिखे थे। ख़ूब सुने जाते थे वे। एक बार एक पारिश्रमिकरहित ग़ैर-साहित्यिक कार्यक्रम में मैंने उन्हें चलने का न्यौता दिया तो बड़े उल्लास के साथ चलने को तैयार हो गए। हस्तिनापुर जाना था। कार में मेरा बेटा और मेरी बेटी भी थे। दोनों बहुत छोटे थे। बेटी ने तो स्कूल जाना शुरू भी नहीं किया था। सारे रास्ते दोनों लड़ते-झगड़ते गए। ख़ास बात यह कि बेटी इस तनातनी में जब कभी हल्की पड़ने लगती, राजगोपाल जी उसकी तरफ़ से हस्तक्षेप करते। उसका पलड़ा पूरी यात्रा में उन्होंने एक पल के लिए भी हल्का नहीं पड़ने दिया। मैंने कारण पूछा तो बोले- यार! बेटियाँ तो नसीब वालों को मिलती हैं। मिल जाएँ तो उनको दुलार और हिफ़ाज़त से रखना चाहिए।
उस समय एक भी कारण ऐसा नहीं था, जो राजगोपाल जी को बिटिया का पक्ष लेने के लिए बाध्य करता। बेटियों पर वे लिखते ही नहीं थे, उसे जीते भी थे। बातचीत में अपनी बहुओं का ज़िक्र करते तो उनको अपनी बेटियाँ ही कहते। ख़ुश होते- ‘यार! अब घर में बेटियाँ हैं तो पूरी रौनक है।’ इंग्लैंड में यह बताने के लिए कि मेरे देशवासी ग़रीब हैं, महात्मा गाँधी ने अपनी चादर हटाकर कहा था- देखो! ऐसे हैं मेरे देश के साधारण लोग। देश उनके शरीर में झलकता था। राजगोपाल सिंह उस परम्परा के साहित्यिक अनुयाइयों की शृंखला के हिस्से थे। जो जीते थे, वो लिखते थे और वही सुनाते थे। यही कारण था कि उनके कहे का असर होता था।
उनका ग़ज़ल संकलन ‘चौमास’ जब छपकर आया तो उन्होंने मुझे भी उसकी प्रति दी। उन दिनों मैं ‘आज की कविता’ यानी समकालीन कविता पर काम कर रहा था। संकलन पढ़ा तो पढ़ता चला गया। हालाँकि मेरा काम गीत या ग़ज़ल पर नहीं था, फिर भी राजगोपाल जी के शेर उद्धृत करने का, उन पर लिखने का लोभ मैं छोड़ नहीं सका। किताब छपी। उन्होंने पढ़ी। बोले- कमाल कर दिया यार! मैं बहुत ख़ुश हूँ। मेरे लिखे को तुमने ख़ूब पकड़ा। कई गीतकार और ग़ज़लगो जल रहे हैं।
कवि का बुढ़ापा पहलवान की जवानी की तरह सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसलिए कि उस वक़्त वह सबसे ताक़तवर लिख सकता है। राजगोपाल जी ऐसे वक़्त गए, जब शायद अपने जीवन का सबसे अच्छा लिखते। ख़ैर! जो लिखा, वह किसी तरह कम नहीं है। मेरी तरफ़ से भी एक महत्वपूर्ण कवि और सच्चे इन्सान को श्रद्धांजलि!
-विनय विश्वास
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